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ग़ज़ल

वक़्त चुपके से मेरे दिल की कहानी लिख गया। मेरी सूनी आँखों में दरिया का पानी लिख गया। ये उसी का ही असर था, जो किताबे जीस्त के- हर सफे पे उसकी ही यादें पुरानी लिख गया। आंसुओं को अब चुकाना ही पड़ेगा, क्योंकि दिल- अब तलक जो क़र्ज़ था, सारा ज़बानी लिख गया। कौन था वो, जो मेरे दिल को समंदर कह गया, और आँखें, आंसुओं की राजधानी लिख गया।

ग़ज़ल

तुम कभी इसके, कभी उसके, कभी उसके हुए। सोचता हूँ जिंदगी भर तुम भला किसके हुए। वो मेरे नगमे चुराकर महफिलों में छा गया, मेरे हिस्से में रहे अहसास कुछ सिसके हुए। करवटें लेते रहे हम, ख्वाब भी आये नहीं, हाथ आये नींद के टुकड़े कई खिसके हुए। माँ ने बोला था कि बेटा उसको तो मत भूलना, जिसकी चाहत के दुपट्टे में बंधे, जिसके हुए। उसने मेरी दर्द में डूबी कहानी यूँ सुनी, जैसे वो कोई कहानी ना हुई, चस्के हुए।

ग़ज़ल

सुख कम हैं, दुःख हज़ार बुजुर्गों के वास्ते। कैसी समय की मार बुजुर्गों के वास्ते। जो फूल थे, औलादें उठाकरके ले गईं, बाकी बचे जो खार बुजुर्गों के वास्ते। गैरों को करें रोज़ ही ईमेल, एसमएस, चिठ्ठी न कोई तार बुजुर्गों के वास्ते। बेटा गया विदेश तो बेटी न पास है, बस यादें बेशुमार बुजुर्गों के वास्ते। बेटों ने जो ज़मीन थी आपस में बाँट ली, जो था बचा उधार बुजुर्गों के वास्ते। सेवा करेगा इनकी तो आशीष मिलेंगे, चेतन तू हो तैयार बुजुर्गो के वास्ते.

हमेशा साथ में रखना

ये तो ताज़ा हवाएं हैं, हमेशा साथ में रखना ये मौसम की अदाएं हैं, हमेशा साथ में रखना, नसीहत, चाहतें, आशीष, नुस्खे, झिडकियां, ये सब- बुजुर्गों की दुआएं हैं, हमेशा साथ में रखना।

युगपुरुष विवेकानंद की जय

जो जन-जन का सहगान बना, जो दुखियों की मुस्कान बना, भारत का गौरवगान बना, जो ऋषियों की संतान बना, जो सच की राह चला निर्भय, है उसी विवेकानंद की जय, मन बोल विवेकानंद की जय, युगपुरुष विवेकानंद की जय। जिसने गौरों के घर जाकर, जब बोला हेलो ब्रदर सिस्टर, तब टूटा मौन, बढ़ी हलचल, ये युवक कौन करता पागल, ये बादल नहीं, है चिंगारी, ये ऋषि सभी पर है भारी, जब शून्य विषय पर स्वर फूटे, सब ज्ञानवान पीछे छूटे, सब लोग उसी के दीवाने, उस कर्मवीर के मस्ताने, जो एक नई पहचान बना, जो संस्कृति का सम्मान बना, भारतमाता की शान बना, जो हर मन का अभिमान बना, है उसी विवेकानंद की जय, मन बोल विवेकानंद की जय, युगपुरुष विवेकानंद की जय। थे सीधे- सादे हावभाव, लेकिन अदम्य उनका प्रभाव, वह सहज, सरल, निर्मल मन का, विश्वास अटल, बहुबल तन का, वह आर्य चला था युग रचने, उसके थे नयन में कई सपने, वह सकल विश्व का संचालक, बस दीखता था चंचल बालक, उसका मकसद छा जाना था, निज देश वरिष्ठ बनाना था, जो मानवता का गीत बना, जो संस्कृति का संगीत बना, हर इक मन का मनप्रीत बना, जो सबकी निश्चित जीत बना, है उसी विवेकानंद की जय, मन बोल विवेकानंद की जय, युगपुरुष

दोहे

युग बीता, मौसम गए, बदला सब परिवेश। किंतु तिमिर से रोज़ ही, लड़ता रहा दिनेश। उसकी यादों में रहा, मैं इतना मशगूल। फूल बताकर बो गए, घर में लोग बबूल। सूख गई भागीरथी, भागीरथ लाचार। व्यथित, व्यग्र, अभिशप्त है, सकल, सगर परिवार। दुःख का पारावार सह, मत हो अधिक अधीर। चिंता का सिर काटती, चिंतन की शमशीर। कटा, कटाया अन्न सब, रखा खेत में धान। कला कौया ले गया, ताकता रहा किसान।

ग़ज़ल

लिख नहीं पाए बहुत ज़्यादा मगर कुछ तो लिखा प्यार की दीवार पे ग़म का असर कुछ तो लिखा. मन की उलझन, तन की चिंता, काम से भारी थकन, जिंदगी के फलसफे पर रातभर कुछ तो लिखा। ये चलो माना कि हम आगाज़ पे चुप रह गए, जिंदगी लेकिन तेरे अंजाम पर कुछ तो लिखा। पढ़ नहीं पाया हमारे दिल को वो तो क्या हुआ, चूमकर उसने हमारे गाल पर कुछ तो लिखा। छोड़िये किस्मत में उसने क्या लिखा, क्या न लिखा, चिलचिलाती धूप में लंबा सफर कुछ तो लिखा।

सौ-सौ नहीं हजारों अभिनन्दन करना

जिसने बढते तूफानों को थाम लिया, आँसू से भी अंगारों का काम लिया, जिसका पौरुष देख पराजित पाक हुआ, सभी विरोधी अमला हटा हलाक हुआ, जिसने की मरने मिटने की तैयारी, जान गँवा दी, लेकिन बाज़ी न हारी, ऐसे अमर शहीद का तुम वंदन करना, सौ-सौ नहीं हजारों अभिन्दन करना। मांग भरी थी उसने कल ही दुल्हन की, खनखन भी पूरी न सुनी थी कंगन की, चाँद सरीखा मुखड़ा तक न देख सका, एक रात की अंगडाई तक नहीं रुका, रुनझुन करती पायल के स्वर मौन हुए, सिहरन ने भी होंठ हृदयके नहीं छुए, भरी गुलाबों की डाली को भूल गया, फांसी के फंदे पर जाकर झूल गया, ऐसे अमर शहीद का तुम वंदन करना, सौ-सौ नहीं हजारों अभिनन्दन करना। दो ही दिन तो हुए थे घर आया था वो, केक पेस्ट्री थैला भर लाया था वो, जन्मदिवस उसके बच्चे का पहला था, जीवनपथ का पल ये नया रुपहला था, लेकिन सजते-सजते कमरा छूट गया, वक्त लुटेरा बनकर खुशियाँ लूट गया, एक तार ने तार-तार सब तार किए, फिर भी जिसने माँ की खातिर प्राण दिए, ऐसे अमर शहीद का तुम वंदन करना, सौ-सौ नहीं हजारों अभिनन्दन करना। श्रवन सरीखा, एकलव्य सा प्यारा था, अंधे की लाठी, आंखों का तारा था, एक अकेला चाँद, सुदीपक सूबे का, घर

गीत -- अभी तो और चलना है

मेरी सोई हुई पीढ़ी, उठो फिर से संभलना है, यही मंजिल नहीं अपनी, अभी तो और चलना है। सितारे गुम हैं अम्बर से, जुदा हर शाख तरुवर से, सभी वातावरण बिखरा, सितारों का चमन बिखरा, सितारों को उगाना है, चमन फिर से सजाना है, नए श्रम के नगीने से, कि अपने ही पसीने से, तुम्हें अब प्यार से ही, नफरतों का रुख बदलना है। यही मंजिल नही अपनी, अभी तो और चलना है। ज़रूरत चेतना की है, ज़रूरत साधना की है, ज़रूरत एकता की है, समन्वय वंदना की है, बनो मुस्कान की दुनिया, नई पहचान की दुनिया, अकेली गूँज से हटकर, बनो सहगान की दुनिया, अँधेरी राह में सूरज, तुम्हें बनकर निकलना है। यही मंजिल नहीं अपनी, अभी तो और चलना है।

होली है जी होली है

गली-गली घूमती है, आसमान चूमती है, मस्त है, मलंग है, तरंग भरी टोली है। रूखे, सूखे अधरों पे मीठी मुस्कान ऐसे- जैसे किसी नीम पे टंगी हुई निबोली है। बात-बात प्रतिघात, झंजावात, चक्रवात, शब्द-शब्द ऐसे जैसे दनदनाती गोली है। रंग भरी पिचकारी उसने उठाके कहा- सोचते हो कान्हा क्या यूँ होली है जी होली है.

ग़ज़ल-5

थी बहुत दिन से अधूरी जो कमी पूरी हुई। तेरे आने से हमारी ज़िन्दगी पूरी हुई। द्वार, छत, दीवार, आँगन, कोने-कोने देख लो, सब हुए रोशन तुझी से रौशनी पूरी हुई। आंख से चलकर उतर आए जो आंसू होंठ पर, है बहुत रहत, चलो कुछ तो हँसी पूरी हुई। सब लबालब हो चुके थे आँख, सपने, नींद, मन, नाम लेते ही तेरा ये साँस भी पूरी हुई। देख ली रोशन नज़र तेरी तो हमको ये लगा, ये ग़ज़ल जो थी अधूरी, बस अभी पूरी हुई।

मुक्तक

खामोश हम रहे तो पहल कौन करेगा उजड़े चमन में फेरबदल कौन करेगा प्रश्नों के पक्ष में अगर चले गए जो हम उत्तर की समस्याओं को हल कौन करेगा। तुम नहीं थे पर तुम्हारी याद थी, दिल की दुनिया इसलिए आबाद थी, क्यों न बनता मेरे सपनों का महल, इसमें तेरे प्यार की बुनियाद थी। सबकी आँखों के प्यारे हुए, हम थे ज़र्रा सितारे हुए, लोग सब जानने लग गए, दिल से हम जब तुम्हारे हुए। तुझसे रिश्ते जो गहरे हुए, दिन सुनहरे-सुनहरे हुए, नींद आती नहीं रातभर, तेरी यादों के पहरे हुए। ये हमें महसूस होता जा रहा है, वो बड़ा मायूस होता जा रहा है, चिट्ठियाँ हाथों में आती ही नहीं अब, डाकिया जासूस होता जा रहा है। खुशबुओं की ज़रूरत हो तुम, क्या कहूं कैसी मूरत हो तुम, चाँद में भी दरार आ गई, किस कदर खूबसूरत हो तुम।

तुम्हारी याद

तुम्हारी याद में चहका, तुम्हारी याद में महका तुम्हारी याद में निखरा, तुम्हारी याद में बिखरा तुम्हारी याद मुझको रात भर सोने नहीं देती, कभी हंसने नहीं देती, कभी रोने नहीं देती। तुम्हारी याद मेरे घर के चौकीदार जैसी , जो पूरी रात जगती है, सुबह करवट बदलती है। तुम्हारी याद दादी माँ की उस लोरी सरीखी है, कि जो बच्चों की मीठी नींद में अक्सर टहलती है। तुम्हारी याद घर आई हुई चिट्ठी की तरह है, जो अपने दूर के संदेश भी नजदीक लाती है। तुम्हारी याद पूजाघर में प्रातः वंदना जैसी जिसे हर रोज़ मेरी माँ बड़ी श्रद्धा से गाती है। तुम्हारी याद मुझको भीड़ में खोने नही देती, कभी हंसने नही देती, कभी रोने नही देती। तुम्हारी याद मेरे सोच की गहराइयों में है तुम्हारी याद मेरी रूह की परछाइयों में है। तुम्हारी याद मेरी चेतना के पंख जैसी है तुम्हारी याद सन्नाटे में गूंजे शंख जैसी है। तुम्हारी याद मरुथल में भटकती प्यास भी तो है तुम्हारी याद सीता का कठिन वनवास भी तो है। तुम्हारी याद जीने का सबक देती तो है, लेकिन तुम्हारी याद मरने तक कोई संन्यास भी तो है। तुम्हारी याद क्यों मुझको, मुझे होने नही देती, कभी हंसने नही देती, कभ

कहाँ गए दिन फूलों के

अँधियारा जंगल-जंगल दूर-दूर तक अब केवल दिखते झाड़ बबूलों के कहाँ गए दिन फूलों के। हर पनघट सूना-सूना सूनी-सूनी चौपालें मौन चतुर्दिक घूम रहा पहन हादसों की खालें गुमसुम नीम, मौन आंगन, ठिठका सा देखे सावन मुखड़े सहमे झूलों के, कहाँ गए दिन फूलों के। अंकुर की करतूतों पर बादल भी शर्माता है पूरब का सारथी यहाँ पश्चिम को मुड जाता है छल से भरे स्वयम्वर में और झूठ के ही घर में चर्चे हुए उसूलों के, कहाँ गए दिन फूलों के.

ग़ज़ल-4

अजब अनहोनिया हैं फिर अंधेरों की अदालत में उजाले धुन रहें हैं सिर अंधेरों की अदालत में। पुजारी ने बदल डाले धरम के अर्थ जिस दिन से, सिसकता है कोई मन्दिर अंधेरों की अदालत में। जो डटकर सामना करता रहा दीपक, वो सुनते हैं वकीलों से गया है घिर अंधेरों की अदालत में। सवेरा बाँटने के जुर्म में पाकर गया जो कल, वो सूरज आज है हाज़िर अंधेरों की अदालत में। सुना है फिर कहीं पर रौशनी की द्रोपदी चेतन, घसीटी ही गई आखिर अंधेरों की अदालत में.
न आंसूं की कमी होगी, न आहों की कमी होगी, कमी होगी तो बस तेरी निगाहों की कमी होगी। कि मेरे कत्ल का चर्चा अदालत मैं न ले जन तुझे ख़ुद को बचाने में गवाहों कि कमी होगी.

ग़ज़ल- 3

अक्सर तेरे ख्याल से बाहर नहीं हुआ शायद यही सबब था मैं पत्थर नहीं हुआ। महका चमन था, पेड़ थे, कलियाँ थे, फूल थे, तुम थे नहीं तो पूरा भी मंज़र नहीं हुआ। माना मेरा वजूद नदी के समान है, लेकिन नदी बगैर समंदर नहीं हुआ। जिस दिन से उसे दिल से भुलाने की ठान ली, उस दिन से कोई काम भी बेहतर नहीं हुआ। साए मैं किसी और के इतना भी न रहो, अंकुर कोई बरगद के बराबर नहीं हुआ।

ग़ज़ल-2

याद आते हैं हमें जब चंद चेहरे देरतक हम उतर जाते हैं गहरे और गहरे देरतक . चांदनी आँगन में तहली भी तो दो पल के लिए धूप के साए अगर आए तो ठहरे देरतक . बंदिशें दलदल पे मुमकिन ही नहीं जो लग सकें रेत की ही प्यास पर लगते हैं पहरे देरतक . हम नदी हैं पर खुशी है हम किसी के हो गए ये समंदर कब हुआ किसका जो लहरे देरतक. ये हकीक़त है यहाँ मेरी कहानी बैठकर गौर से सुनते रहे कल चंद बहरे देरतक.
ग़ज़ल -1 अगर ये प्यार है तो प्यार के ये दरमियाँ भी हो न हम बोलें, न तुम बोलो, मगर किस्सा बयां भी हो जहाँ दिल से मिलें दिल एक ऐसा कारवां भी हो कहाँ पर हो, कहाँ कह दूँ, यहाँ भी हो, वहां भी हो। उसे सूरज दिया, चंदा दिया, तारे दिए फिर भी, वो कहता, मेरे हिस्से में अब ये आसमां भी हो। भला तू ही बता, मैं शर्त उसकी मान लूँ कैसे, वो कहता है, कापर का परिंदा बेजुबां भी हो। मुझे थी चाह जिसकी वो तेरा दिल मिल गया मुझको मुझे क्या काम तेरे जिस्म से, चाहे जहाँ भी हो.