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अप्रैल, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

युगपुरुष विवेकानंद की जय

जो जन-जन का सहगान बना, जो दुखियों की मुस्कान बना, भारत का गौरवगान बना, जो ऋषियों की संतान बना, जो सच की राह चला निर्भय, है उसी विवेकानंद की जय, मन बोल विवेकानंद की जय, युगपुरुष विवेकानंद की जय। जिसने गौरों के घर जाकर, जब बोला हेलो ब्रदर सिस्टर, तब टूटा मौन, बढ़ी हलचल, ये युवक कौन करता पागल, ये बादल नहीं, है चिंगारी, ये ऋषि सभी पर है भारी, जब शून्य विषय पर स्वर फूटे, सब ज्ञानवान पीछे छूटे, सब लोग उसी के दीवाने, उस कर्मवीर के मस्ताने, जो एक नई पहचान बना, जो संस्कृति का सम्मान बना, भारतमाता की शान बना, जो हर मन का अभिमान बना, है उसी विवेकानंद की जय, मन बोल विवेकानंद की जय, युगपुरुष विवेकानंद की जय। थे सीधे- सादे हावभाव, लेकिन अदम्य उनका प्रभाव, वह सहज, सरल, निर्मल मन का, विश्वास अटल, बहुबल तन का, वह आर्य चला था युग रचने, उसके थे नयन में कई सपने, वह सकल विश्व का संचालक, बस दीखता था चंचल बालक, उसका मकसद छा जाना था, निज देश वरिष्ठ बनाना था, जो मानवता का गीत बना, जो संस्कृति का संगीत बना, हर इक मन का मनप्रीत बना, जो सबकी निश्चित जीत बना, है उसी विवेकानंद की जय, मन बोल विवेकानंद की जय, युगपुरुष

दोहे

युग बीता, मौसम गए, बदला सब परिवेश। किंतु तिमिर से रोज़ ही, लड़ता रहा दिनेश। उसकी यादों में रहा, मैं इतना मशगूल। फूल बताकर बो गए, घर में लोग बबूल। सूख गई भागीरथी, भागीरथ लाचार। व्यथित, व्यग्र, अभिशप्त है, सकल, सगर परिवार। दुःख का पारावार सह, मत हो अधिक अधीर। चिंता का सिर काटती, चिंतन की शमशीर। कटा, कटाया अन्न सब, रखा खेत में धान। कला कौया ले गया, ताकता रहा किसान।

ग़ज़ल

लिख नहीं पाए बहुत ज़्यादा मगर कुछ तो लिखा प्यार की दीवार पे ग़म का असर कुछ तो लिखा. मन की उलझन, तन की चिंता, काम से भारी थकन, जिंदगी के फलसफे पर रातभर कुछ तो लिखा। ये चलो माना कि हम आगाज़ पे चुप रह गए, जिंदगी लेकिन तेरे अंजाम पर कुछ तो लिखा। पढ़ नहीं पाया हमारे दिल को वो तो क्या हुआ, चूमकर उसने हमारे गाल पर कुछ तो लिखा। छोड़िये किस्मत में उसने क्या लिखा, क्या न लिखा, चिलचिलाती धूप में लंबा सफर कुछ तो लिखा।