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कहाँ गए दिन फूलों के

अँधियारा जंगल-जंगल
दूर-दूर तक अब केवल
दिखते झाड़ बबूलों के
कहाँ गए दिन फूलों के।

हर पनघट सूना-सूना
सूनी-सूनी चौपालें
मौन चतुर्दिक घूम रहा
पहन हादसों की खालें
गुमसुम नीम, मौन आंगन,
ठिठका सा देखे सावन
मुखड़े सहमे झूलों के,
कहाँ गए दिन फूलों के।

अंकुर की करतूतों पर
बादल भी शर्माता है
पूरब का सारथी यहाँ
पश्चिम को मुड जाता है
छल से भरे स्वयम्वर में
और झूठ के ही घर में
चर्चे हुए उसूलों के,
कहाँ गए दिन फूलों के.

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प्यार के दोहे

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मुक्तक

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