सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

तुम्हारी याद

तुम्हारी याद में चहका, तुम्हारी याद में महका
तुम्हारी याद में निखरा, तुम्हारी याद में बिखरा
तुम्हारी याद मुझको रात भर सोने नहीं देती,
कभी हंसने नहीं देती, कभी रोने नहीं देती।
तुम्हारी याद मेरे घर के चौकीदार जैसी ,
जो पूरी रात जगती है, सुबह करवट बदलती है।
तुम्हारी याद दादी माँ की उस लोरी सरीखी है,
कि जो बच्चों की मीठी नींद में अक्सर टहलती है।
तुम्हारी याद घर आई हुई चिट्ठी की तरह है,
जो अपने दूर के संदेश भी नजदीक लाती है।
तुम्हारी याद पूजाघर में प्रातः वंदना जैसी
जिसे हर रोज़ मेरी माँ बड़ी श्रद्धा से गाती है।
तुम्हारी याद मुझको भीड़ में खोने नही देती,
कभी हंसने नही देती, कभी रोने नही देती।

तुम्हारी याद मेरे सोच की गहराइयों में है
तुम्हारी याद मेरी रूह की परछाइयों में है।
तुम्हारी याद मेरी चेतना के पंख जैसी है
तुम्हारी याद सन्नाटे में गूंजे शंख जैसी है।
तुम्हारी याद मरुथल में भटकती प्यास भी तो है
तुम्हारी याद सीता का कठिन वनवास भी तो है।
तुम्हारी याद जीने का सबक देती तो है, लेकिन
तुम्हारी याद मरने तक कोई संन्यास भी तो है।
तुम्हारी याद क्यों मुझको, मुझे होने नही देती,
कभी हंसने नही देती, कभी रोने नही देती।

तुम्हारी याद फूलों सी, तुम्हारी याद शबनम सी,
हवा के मंद झौकों सी, नए मदमस्त मौसम सी।
तुम्हारी याद झूलों सी, तुम्हारी याद सावन सी,
तुम्हारी याद अंगडाई, तुम्हारी याद धड़कन सी।
तुम्हारी याद राधा-कृष्ण में व्याकुल सी मीरा सी,
तुम्हारी याद तुलसी, सूर, रत्नाकर, कबीरा सी।
तुम्हारी याद जयशंकर, महादेवी, निराला सी,
तुम्हारी याद बच्चन की छलकती मस्त हाला सी।
सुमन जैसी तुम्हारी याद, दिनकर सी, भवानी सी,
तुम्हारी याद कोमल गीत, चौपाई, कहानी सी।
तुम्हारी याद समझौता कोई ढोने नही देती,
कभी हंसने नही देती, कभी रोने नही देती।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

प्यार के दोहे

प्यार युद्ध, हिंसा नहीं, प्यार नहीं हथियार, प्यार के आगे झुक गईं, कितनी ही सरकार। प्यार कृष्ण का रूप है, जिसे भजें रसखान, प्यार जिसे मिल जाये वो, बन जाये इंसान। प्यार हृदय की पीर है, प्यार नयन का नीर, ढाई आखर प्यार है, कह गए संत कबीर। प्यार न समझे छल-कपट, चोरी, झूठ या लूट, प्यार पवित्र रिश्ता अमर, जिसकी डोर अटूट। प्यार में ओझल चेतना, प्यार में गायब चैन, प्यार अश्रु अविरल-विकल, जिसमें भीगें नैन।

ग़ज़ल- 3

अक्सर तेरे ख्याल से बाहर नहीं हुआ शायद यही सबब था मैं पत्थर नहीं हुआ। महका चमन था, पेड़ थे, कलियाँ थे, फूल थे, तुम थे नहीं तो पूरा भी मंज़र नहीं हुआ। माना मेरा वजूद नदी के समान है, लेकिन नदी बगैर समंदर नहीं हुआ। जिस दिन से उसे दिल से भुलाने की ठान ली, उस दिन से कोई काम भी बेहतर नहीं हुआ। साए मैं किसी और के इतना भी न रहो, अंकुर कोई बरगद के बराबर नहीं हुआ।

ग़ज़ल-4

अजब अनहोनिया हैं फिर अंधेरों की अदालत में उजाले धुन रहें हैं सिर अंधेरों की अदालत में। पुजारी ने बदल डाले धरम के अर्थ जिस दिन से, सिसकता है कोई मन्दिर अंधेरों की अदालत में। जो डटकर सामना करता रहा दीपक, वो सुनते हैं वकीलों से गया है घिर अंधेरों की अदालत में। सवेरा बाँटने के जुर्म में पाकर गया जो कल, वो सूरज आज है हाज़िर अंधेरों की अदालत में। सुना है फिर कहीं पर रौशनी की द्रोपदी चेतन, घसीटी ही गई आखिर अंधेरों की अदालत में.