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फ़रवरी, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मुक्तक

खामोश हम रहे तो पहल कौन करेगा उजड़े चमन में फेरबदल कौन करेगा प्रश्नों के पक्ष में अगर चले गए जो हम उत्तर की समस्याओं को हल कौन करेगा। तुम नहीं थे पर तुम्हारी याद थी, दिल की दुनिया इसलिए आबाद थी, क्यों न बनता मेरे सपनों का महल, इसमें तेरे प्यार की बुनियाद थी। सबकी आँखों के प्यारे हुए, हम थे ज़र्रा सितारे हुए, लोग सब जानने लग गए, दिल से हम जब तुम्हारे हुए। तुझसे रिश्ते जो गहरे हुए, दिन सुनहरे-सुनहरे हुए, नींद आती नहीं रातभर, तेरी यादों के पहरे हुए। ये हमें महसूस होता जा रहा है, वो बड़ा मायूस होता जा रहा है, चिट्ठियाँ हाथों में आती ही नहीं अब, डाकिया जासूस होता जा रहा है। खुशबुओं की ज़रूरत हो तुम, क्या कहूं कैसी मूरत हो तुम, चाँद में भी दरार आ गई, किस कदर खूबसूरत हो तुम।

तुम्हारी याद

तुम्हारी याद में चहका, तुम्हारी याद में महका तुम्हारी याद में निखरा, तुम्हारी याद में बिखरा तुम्हारी याद मुझको रात भर सोने नहीं देती, कभी हंसने नहीं देती, कभी रोने नहीं देती। तुम्हारी याद मेरे घर के चौकीदार जैसी , जो पूरी रात जगती है, सुबह करवट बदलती है। तुम्हारी याद दादी माँ की उस लोरी सरीखी है, कि जो बच्चों की मीठी नींद में अक्सर टहलती है। तुम्हारी याद घर आई हुई चिट्ठी की तरह है, जो अपने दूर के संदेश भी नजदीक लाती है। तुम्हारी याद पूजाघर में प्रातः वंदना जैसी जिसे हर रोज़ मेरी माँ बड़ी श्रद्धा से गाती है। तुम्हारी याद मुझको भीड़ में खोने नही देती, कभी हंसने नही देती, कभी रोने नही देती। तुम्हारी याद मेरे सोच की गहराइयों में है तुम्हारी याद मेरी रूह की परछाइयों में है। तुम्हारी याद मेरी चेतना के पंख जैसी है तुम्हारी याद सन्नाटे में गूंजे शंख जैसी है। तुम्हारी याद मरुथल में भटकती प्यास भी तो है तुम्हारी याद सीता का कठिन वनवास भी तो है। तुम्हारी याद जीने का सबक देती तो है, लेकिन तुम्हारी याद मरने तक कोई संन्यास भी तो है। तुम्हारी याद क्यों मुझको, मुझे होने नही देती, कभी हंसने नही देती, कभ

कहाँ गए दिन फूलों के

अँधियारा जंगल-जंगल दूर-दूर तक अब केवल दिखते झाड़ बबूलों के कहाँ गए दिन फूलों के। हर पनघट सूना-सूना सूनी-सूनी चौपालें मौन चतुर्दिक घूम रहा पहन हादसों की खालें गुमसुम नीम, मौन आंगन, ठिठका सा देखे सावन मुखड़े सहमे झूलों के, कहाँ गए दिन फूलों के। अंकुर की करतूतों पर बादल भी शर्माता है पूरब का सारथी यहाँ पश्चिम को मुड जाता है छल से भरे स्वयम्वर में और झूठ के ही घर में चर्चे हुए उसूलों के, कहाँ गए दिन फूलों के.

ग़ज़ल-4

अजब अनहोनिया हैं फिर अंधेरों की अदालत में उजाले धुन रहें हैं सिर अंधेरों की अदालत में। पुजारी ने बदल डाले धरम के अर्थ जिस दिन से, सिसकता है कोई मन्दिर अंधेरों की अदालत में। जो डटकर सामना करता रहा दीपक, वो सुनते हैं वकीलों से गया है घिर अंधेरों की अदालत में। सवेरा बाँटने के जुर्म में पाकर गया जो कल, वो सूरज आज है हाज़िर अंधेरों की अदालत में। सुना है फिर कहीं पर रौशनी की द्रोपदी चेतन, घसीटी ही गई आखिर अंधेरों की अदालत में.
न आंसूं की कमी होगी, न आहों की कमी होगी, कमी होगी तो बस तेरी निगाहों की कमी होगी। कि मेरे कत्ल का चर्चा अदालत मैं न ले जन तुझे ख़ुद को बचाने में गवाहों कि कमी होगी.

ग़ज़ल- 3

अक्सर तेरे ख्याल से बाहर नहीं हुआ शायद यही सबब था मैं पत्थर नहीं हुआ। महका चमन था, पेड़ थे, कलियाँ थे, फूल थे, तुम थे नहीं तो पूरा भी मंज़र नहीं हुआ। माना मेरा वजूद नदी के समान है, लेकिन नदी बगैर समंदर नहीं हुआ। जिस दिन से उसे दिल से भुलाने की ठान ली, उस दिन से कोई काम भी बेहतर नहीं हुआ। साए मैं किसी और के इतना भी न रहो, अंकुर कोई बरगद के बराबर नहीं हुआ।

ग़ज़ल-2

याद आते हैं हमें जब चंद चेहरे देरतक हम उतर जाते हैं गहरे और गहरे देरतक . चांदनी आँगन में तहली भी तो दो पल के लिए धूप के साए अगर आए तो ठहरे देरतक . बंदिशें दलदल पे मुमकिन ही नहीं जो लग सकें रेत की ही प्यास पर लगते हैं पहरे देरतक . हम नदी हैं पर खुशी है हम किसी के हो गए ये समंदर कब हुआ किसका जो लहरे देरतक. ये हकीक़त है यहाँ मेरी कहानी बैठकर गौर से सुनते रहे कल चंद बहरे देरतक.
ग़ज़ल -1 अगर ये प्यार है तो प्यार के ये दरमियाँ भी हो न हम बोलें, न तुम बोलो, मगर किस्सा बयां भी हो जहाँ दिल से मिलें दिल एक ऐसा कारवां भी हो कहाँ पर हो, कहाँ कह दूँ, यहाँ भी हो, वहां भी हो। उसे सूरज दिया, चंदा दिया, तारे दिए फिर भी, वो कहता, मेरे हिस्से में अब ये आसमां भी हो। भला तू ही बता, मैं शर्त उसकी मान लूँ कैसे, वो कहता है, कापर का परिंदा बेजुबां भी हो। मुझे थी चाह जिसकी वो तेरा दिल मिल गया मुझको मुझे क्या काम तेरे जिस्म से, चाहे जहाँ भी हो.